दहेज प्रथा – Essay on Dowry System

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पंचतंत्र में लिखा है – पुत्री उत्पन्न हुई, बड़ी चिंता है. यह किसको दी जाएगी और देने के बाद भी वह सुख पाएगी या नही, यह बड़ा वितर्क रहता है. कन्या का पितृत्व निश्चय ही कष्टपूर्ण होता है. इन्ही बातो को दहेज प्रथा में बताया गया है.

इस श्लेष से ऐसा लगता है कि अति प्राचीन काल से ही दहेज़ की प्रथा हमारे देश में रही है. दहेज़ इस समय निश्चित ही इतना कष्टदायक और विपत्तिसूचक होने के साथ ही साथ इस तरह प्राणहारी न था जितना कि आज है. यही कारण है कि आज दहेज प्रथा को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा और समझा जा रहा है.

आज दहेज़ प्रथा एक सामाजिक बुराई क्यों है? इस प्रशन के उत्तर में यह कहना ही सार्थक होगा कि आज दहेज़ का रूप अत्यंत विकृत और कुत्सित हो गया है. यद्यपि प्राचीन काल में भी दहेज़ की प्रथा थी लेकिन वह इतनी भयानक और प्राण संकटापन्न स्थित को उत्पन्न करने वाली न थी. उस समय दहेज स्वच्छन्दपूर्वक था. दहेज़ लिया नही जाता था. अपितु दहेज़ दिया जाता था. दहेज़ प्राप्त करने वाले के मन में स्वार्थ की कही कोई खोट न थी. उसे जो कुछ भी मिलता था उसे वह सहर्ष अपना लेता था लेकिन आज दहेज़ की स्थिति इसके ठीक विपरीत हो गई है.

आज दहेज़ एक दानव के रूप में जीवित होकर साक्षात हो गया है. दहेज़ एक विषधर साँप के समान एक-एक करके बंधुओं को डंस रहा है. कोई इससे बच नही पाता है, धन की लोलुपता और असंतोष की प्रवृति तो इस दहेज़ के प्राण है.

दहेज़ का अस्तित्व इसी से है. इसी ने मानव समाज को पशु समाज में बदल दिया है. दहेज़ न मिलने अर्थात धन न मिलने से बार-बार संकटापन्न स्थिति का उत्पन्न होना कोई आश्चर्य की बात नही होती है. इसी के कारण कन्यापक्ष को झुकना पड़ता है. नीचा बनना पड़ता है. हर कोशिश करके वरपक्ष और वर की माँग को पूरा करना पड़ता है. आवश्यकता पड़ जाने पर घर-बार भी बेच देना पड़ता है. घर की लाज भी नही बच पाती है.

दहेज के अभाव में सबसे अधिक बधू को दुःख उठाना पड़ता है. उसे जली कटी, ऊंटपटांग बद्दुआ, झूठे अभियोग से मढ़ा जाना और तरह-तरह के दोषारोपण करके आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है. दहेज के कुप्रभाव से केवल वर वधु ही नहीं प्रभावित होते है. अपितु इनसे सम्बंधित व्यक्तियों को भी इसकी लपट में झुलसना पड़ता है. इससे दोनों के दूर-दूर के सम्बंध बिगड़ने के साथ-साथ मान अपमान दुखद वातावरण फ़ैल जाता है जो आने वाली पीढ़ी को एक मानसिक विकृति और दुष्प्रभाव को जन्माता है.

दहेज़ के कुप्रभाव से मानसिक अव्यस्त्ता बनी रहती है. कभी-कभी तो यह भी देखने में आता है कि दहेज के अभाव में प्रताड़ित वधू ने आत्महत्या कर ली है या उसे जला डुबाकर मार दिया गया है जिसके परिणाम स्वरूप कानून की गिरफ्त में दोनों परिवार के लोग आ जाते है, पैसे बेशुमार लग जाते है, शारीरिक दंड अलग मिलते है. काम ठन्डे अलग से पड़ते है और इतना होने के साथ अपमान और असम्मान आलोचना भरपूर सहने को मिलते है.

दहेज प्रथा सामाजिक बुराई के रूप

उपयुक्त तथ्यों के आधार पर सिद्ध की जा चुकी है. अब दहेज प्रथा को दूर करने के मुख्य मुद्दों पर विचारना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है. इसी बुरी दहेज़ प्रथा को तभी जड़ से उखाड़ा जा सकता है जब सामाजिक स्टर पर जागृति अभियान चलाया जाए. इसके कार्यकर्त्ता अगर इसके भुगत भोगी लोग हो तो यह प्रथा यथाशीघ्र समाप्त हो सकती है. ऐसा सामाजिक संगठन हो. सरकारी सहयोग होना भी जरुरी है क्योकि जब तक दोषी व्यक्ति को सख्त क़ानूनी कार्यवाही करके दंड न दिया जाए तब तक इस प्रथा को बेदम नहीं किया जा सकता. संतोष की बात है कि सरकारी सहयोग के द्वारा सामाजिक जागृति आई है. यह प्रथा निकट भविष्य में अवश्य समाप्त हो जाएगी.